उमरिया। एनएच 43 के किनारे बसा उमरिया जिले का छोटा सा गांव लोढ़ा और वहां की बहुत साधारण सी मजदूर जोधइया बाई बैगा आज दोनों ही राष्ट्रीय पटल पर हैं। ऐसा इसलिए संभव हुआ क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय बैगा चित्रकार के रूप में दुनिया में अपनी पहचान बना चुकी जोधइया बाई बैगा को पद्मश्री पुरस्कार मिला है। एक मजदूर से चित्रकार और इस सम्मन तक पहुंचने का जोधइया बाई का मार्ग जितना संघर्ष से परिपूर्ण रहा उतना ही रोचक भी रहा है।

मैं नीर भरी दु:ख की बदरी

मैं नीर भरी दु:ख की बदरी कविता को लिखा तो महादेवी वर्मा ने था लेकिन वह जोधइया बाई की जीवनगाथा बन गई। 35-36 साल की बहुत छोटी सी उम्र में जोधइया बाई ने अपने पति मैकू बैगा को खो दिया था। बीमारी से ग्रस्त मैकू बैगा की मौत किसी बड़ी बीमारी की वजह से हो गई थी। उस समय जोधइया बाई बैगा के दो मासूम बच्चे उसके साथ थे और तीसरी संतान गर्भ में थी। अपने दो बच्चों सुरेश बैगा और पिंजू बैगा के लालन-पालन के लिए मजदूरी करते हुए जोधइया बाई बैगा ने अपनी तीसरी संतान बेटी दुखिया बाई को जन्म दिया। बेटी के जन्म के साथ ही जोधइया बाई को कमजोरी ने घेर लिया। तीन बच्चों की जिम्मेदारी ने उसे अपने ही शरीर की कमजोरी के साथ लड़ने को विवश कर दिया, परिणामस्वरूप बेटी के जन्म के साथ ही वह एक बार फिर जीवन के रण में दु:खों से संघर्ष करने उतर पड़ी। 

दु:ख ही जीवन की गाथा रही

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की सरोज स्मृति में लिखी कविता दु:ख ही जीवन की गाथा रही, क्या कहूं जो नहीं कही जितनी सरोज के लिए लगती है उतना ही जाधइया बाई को भी खुद को जोड़ लेती है। पीठ पर मासूम बच्ची को बांधकर जोधइया बाई गाय, भैंस, बकरी चराने जाती थीं। जंगल से वापसी में लकडि़यां भी बीन लाती थी जिसका बोझ भी उसके अपने सिर पर होता था। गांव में लोगों के घरों को लीपना, आंगन और दीवारों को गेंरू से सजाना, खेत में मजदूरी करना यही यही उसके जीवन की भाग दौड़ थी।

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