योगेन्द्र पटेल {सामाजिक राजनीति विश्लेषक ]
       मध्यप्रदेश,राजस्थान और छत्तीसगढ़ के  इस बार के विधानसभा चुनाओं ने राजनीति के क्षेत्र में कई बड़े नेताओं को धराशाही कर यह संदेश देने की कोशिश की है कि अब राजनीति में किसी भी एक का सिक्का नहीं चलने वाला है। साथ ही यह भी संदेश दिया है कि जो भी दल या व्यक्ति विशेष कौशल आर्थिक प्रगति के बारे में सोचेगा उसे ही जनता प्रथम अवसर देगी। 
यह अलग बात हो सकती है कि कुछ एक विधायक संगठनात्मक लहर के चलते जीत गए हों लेकिन उसमें भी महिलाओं के आर्थिक लाभ जैसा पैकेज शामिल था जो मप्र सरकार ने 1250 रूपये के रूप् में महिलाओं को दिया था। लेकिन यह पैकेज लंबे समय तक स्थिर रह सके यह संभव नहीं है,इस लिए सरकार में पहुंचे उन सभी नव विधायकों को सीर्फ जीत की खुशी में मस्त रहने के अलाव भी अब फिल्ड पर कड़ी मेहनत कर कुछ ऐसे नवाचार करने होंगे जो सरकार के खजाना भरने में सहायक हो सके। 

विधायक सिर्फ फण्ड उपयोग तक न रहे सीमिति
अभी तक राजनीतिक परंपरा है कि माननीय सिर्फ अपने मिले बजट को ठिकाने लगाने एवं स्वयंप्रचार तक इसका उपयोग करने तक स्वयं को सीमित रखे हुए हैं,ऐसे कम ही विधायक दिखते हैं जिन्होंने सरकार के खजाने को भरने एवं समुदाय को आर्थिक रूप से मजबूत करने की नीति पर कार्य किया हो। 
अब  विधायकों को खुद को बदलने का वक्त आ गया है,अगर वे सामाजिक ,सांस्कृतिक,एवं पर्यावरण से जुड़े मुददे पर अपना फोकस नहीं करेंगे तो या तो प्रकृति उन्हे नहीं छोड़ेगी या फिर अगली बार जनता उन्हे उखाड़ फेकेगी। 

क्या है सामुदायिक उद्यम
वर्तमान में सरकारें उन लोगों को ज्यादा लाभ पहुंचा रही है जो उद्यम के नाम पर अपना व्यापार कर दलों को फण्ड देते हैं या फिर बैंको से लोन लेकर फरार हो जाते हैं,ऐसी स्थिति में युवा पढ़ लिख कर भी अलगाव झेलते दिखते हैं। मुख्यधारा से हटकर यह अलगाव युवाओं को बेरोजगारी के रास्ते पर धकेल  रहा हैं। नीति निर्माताओं को अब युवाओं को सिर्फ उपभोक्ता या कामगार समझने की सोच से बहार निकाले की सोच पर नीति बनाने की  आवश्कता लगती है।  अब सरकारों  को चाहिए की वह सामाजिक उद्यमी बनने की दिशा में एकल व्यापार नीति की जगह सामुदायिक व्यापार नीति पर भी गंभीर चिंतन करें एवं अपने सैलरी प्राप्त करने वाले विधायकों को इस कार्य पर लगाए। 
सामाजिक उद्यम पर विधायकों का ध्यान नहीं
कई तो ऐसे विधायक है जों परंपरापत रूप से दलगत,धर्मगत या जातिगत रूप से बगैर सामाजिक मुददों या लहर बेस राजनीति से जीत जाते हैं,यह सहीं है कि उन्हे अब जनता अस्वीकार करने लगी है,और गलती से स्वीकार कर भी लिया है तो उसे आगे मुश्किल हो सकती है। 

राजनीति में भी बदलाव की दरकार
एक वर्ल्ड इकानामिक फोरम की एक रिपोर्ट कहती है 38.3% सामाजिक उद्यम एक साल से कम समय में, लगभग आधे यानी 45.2% सामाजिक उद्यम एक से तीन साल में और 8.7% उद्यम चार से छह साल में बंद हो जाते हैं। केवल 5.2% उद्यम 10 साल से अधिक समय तकए बतौर एक संस्था अपना अस्तित्व बनाए रख पाते हैं। सामाजिक उद्यमियों की असफलताओं का कारण गिनवाते हुए मुख्य रूप से जो चार बातें कही जाती हैं,वे हैं,  उद्देश्य का स्पष्ट न होनाए ज़रूरी कुशलताओं का अभाव, बदलते समाज और बाज़ार की समझ न होना और सही मूल्यांकन और बेहतरी के प्रयासों का अभाव। साथ ही इसके पीछे का मुख्य कारण इस ओर वर्तमान उस जगह की लीडशिप का निरंकुश होना भी हो सकता है। अब विधायकों को इस मसले पर सोच बदलने की आवश्यकता है कि सिर्फ हम मुददे उछालने या कानून पास कराने के लिए ही नहीं बने हैं,जब सब ओर बदलाव हो रहा है तो राजनीति में भी बदलाव की दरकार है। सभी नव विधायकों से यही कहा जा सकता है कि वे सतत विकास लक्ष्य 2030 हासिल करने एक ऐसे मंच का नवांकरण करे जो आर्थिक,सामाजिक,एवं शैक्षिक विकास की दिशा में अग्रसर हो एवं कर्जतले सरकार के राजस्व में बढ़ोत्तरी की उम्मीद रखता हो। 

नेताओं को  को  धारणा बदलनी पड़ेगी
वर्तमान में सामाजिक उद्यमिता को किसी स्वयंसेवी कार्यक्रम की तरह देखा जाता है। यह कुछ हद तक सही होने के बाद भी बहुत अलग है। किसी बिज़नेस आइडिया की तरह मुद्दों की पहचान करने और उन पर काम किए जाने की जरूरत है। फिर उस पर अभियान बनाने और चलाने की प्रक्रियाओं बात होनी चाहिए। हमें यह समझने.समझाने की जरूरत है कि यह सिर्फ एनजीओ का काम नहीं है।ष् समाजिक उद्यमिता को समाजसेवा या परोपकार के काम से अलग करके देखे जाने की जरूरत है। इसके लिए नीतिगत सहयोग और सामाजिक जागरुकता दोनों की जरूरत है।

न्यूज़ सोर्स : ipm